मंगलवार, 16 अक्टूबर 2012

श्री श्री: भारत की शिक्षा व्यवस्था

आखिर हम शिक्षा को क्या मानते हैं? जिस तरह की कच्ची मानसिकता इस देश में व्याप्त है उससे आभास होता है शिक्षा पढाई या एक डिग्री नौकरी पाने का एक साधन मात्र है I
इस देश की सामान्य धारणा है है की हर व्यक्ति बराबर ही योग्य पैदा होता है, हमें लगता है की उम्र बीतने के साथ हर ज्ञान, योग्यता अपने आप ही आ जाती है यानी बाल सफ़ेद होने का मतलब ही ज्ञानी हो जाना है जिसका प्रतीक बस उम्र हो जाने पर ही किसी का भी सम्मान इत्यादि की परंपरा का होना है I व्यक्ति की योग्यता किसी एक क्षेत्र में हो सकती है या कोई सर्वथा अयोग्य भी हो सकता है -ऐसा सर्वसाधारण की समझ में नहीं है और स्वाभाविक भी है की हर कोई इस योग्य नहीं हो सकता की जिसे यह समझने का गुण पैदा होते ही या उसके बाद भी मिल ही जाये I पर हर व्यक्ति कुछ गुणों और दुर्गुणों के साथ पैदा होता है ये एक सार्वभौमिक सत्य है! और शिक्षा अपनी योग्यताओं को जानने पहचानने का एक जरिया भी है!
शिक्षा नौकरी पाने का साधन नहीं है I पर इस देश में शिक्षा कोई ज्ञान पाने के लिए नहीं की जाती, कम से कम अभी मोटे तौर पर देखा जाये तो जो भारतीय समाज है उसे देखकर यही लगता है.. अभी भी अधिकतर के लिए स्कूली शिक्षा बस कोई नौकरी पा जाने के लिए ही है.
और बड़े कौतूहल का विषय है की आज जिस तरह की शोचनीय स्थिति है वो उस भारतभूमि पर है जिसने समूची मानवता को शिक्षित किया है I ये कोई अलंकार नहीं है भारत वर्ष ने ही ५०० इसा पूर्व से लेकर ८०० इसा (या कहें ४०० विक्रमीपूर्व से लेकर ७०० विक्रमी संवत तक ) तक विश्व को सभी बड़े धर्म दिए चाहे वो इस्लाम हो, ईसाईं धर्म हो या तथाकथित ‘हिन्दू’ धर्म और उसके उपांग जैसे बुद्ध, जैन इत्यादि* I और उसके बाद यही ज्ञान शिक्षा अरब और प्राचीन यूरोप में पहुंची विदेशी यात्रियों, घुमंतुओं, आक्रमणकारियो, शिक्षार्थियों और धर्म प्रसारको जैसे विक्रमादित्य और अशोक के भेजे हुए धर्म प्रचारक और बाद में उनके किये लगातार धर्मस्थापन से!
भारत ने ही विश्व को पहले विश्वविद्यालय दिए हैं जिन्होंने विश्व के कई कई हजार छात्रो(हर साल) को ज्ञान की हर विधा में परिपूर्ण किया, भारत में ही कई ज्ञान क्षेत्रो, विषयो और विधाओं का प्रथम बार विकास हुआ.
नालंदा, तक्षशीला, काशी, विक्रमशिला जैसे लगभग दर्जन भर से अधिक विश्व विद्यालय विभिन्न अंतरालो पर शिक्षा दीक्षा का तात्कालिक विश्व में एकमात्र और बेहद सक्षम केंद्र रहे हैं और मात्र विश्व विद्यालय ही नहीं भारतवर्ष भर में लगभग हर गाँव में एक एक गुरुकुल हुआ करते थे जो अन्य कई छोटी पाठशालाओ से जुड़े होते थे… बस आज से ३०० साल पहले तक ही लगभग पौने आठ लाख गुरुकुल थे!
उनका क्या हुआ वो तो एक हृदयविदारक और हमारे जानने योग्य शर्मनाक घटना है!!
हड़प्पा मोहेन जोदाड़ो में यानी आज से ५५०० वर्ष पूर्व ही धर्म स्थल और शिक्षा स्थल होते थे जो आज खंडहर की मूरत में अब पाए गए हैं!
काशी, उज्जैन, अवन्ती, गया, कश्मीर और काबा*(जी हाँ) आदि आदि प्राचीनतम भारतीय नगर केवल शिक्षा केंद्र नहीं थे बल्कि सशक्त धार्मिक स्थल भी थे ! वो क्यों?
क्योंकि शिक्षा धर्म से अलग नहीं है.
शिक्षा विद्यालय में छात्रो को अनुशासित करती है और धर्म वयस्क नागरिको के लिए भी वही करता है! शिक्षा और आचरण यानि धर्म अलग अलग नहीं हैं! हम जो पढ़ते हैं वही तो करना चाहिए? नहीं? पर क्या आज ऐसा हो रहा है?
क्यों है ये दोगलापन जहाँ हम अपने बच्चो को पढ़ाते कुछ और हैं वो सोचते कुछ और हैं और हम उनसे आशा कुछ और करने की करते हैं?
शिक्षा कोई व्यवसाय या आर्थिक लाभ का माध्यम नहीं हो सकता(सरकार के लिए!) बल्कि देश की नींव तैयार करने का सबसे महत्वपूर्ण केंद्र है ये! पर, इसका मतलब वो कत्तई नहीं निकाला जाना चाहिए जो कैमरे वाले मीडिया के भाई लोग समझा रहे हैं! शिक्षा का व्यवसायीकरण न हो का मतलब ये है की ये सरकार के परम प्रमुख पवित्र और पक्षपात रहित दायित्वों में एक है जहाँ कोई स्वार्थ न हो सिवाय अच्छी शिक्षा के I विद्यालयों को स्थापित करने के लिए भी पर्याप्त धन चाहिए और ये जिम्मेदारी भी “राज्य” या सरकार की है चाहे वो निजी व्यवस्थापको के हाथ में ही क्यों न हो. पर असल में क्या हो रहा है इस देश में?
क्या हम वास्तव में अपने महान ज्ञानी ऋषि मुनि पूर्वजो के सच्चे उत्तराधिकारी हैं? जवाब है नहीं !! बिलकुल नहीं..!
पहले तो हम देखें की क्या यह देश वास्तव में एक आदर्श शिक्षा प्रणाली को प्रश्रय दे सकता है? जवाब मिल जायेगा हमारे व्यव्हार से जैसे हम अपने शिक्षको के साथ करते हैं और फिर देखें कैसा सम्मान हम अपने शिक्षको या गुरुओ के साथ करते हैं और कैसा सम्मानपूर्ण व्यव्हार हम फ़िल्मी भांडों के साथ करते हैं I हर रोज सडको पर शिक्षक अस्थायी नौकरी पे काम करता हुआ अपनी नौकरी के लिए संघर्ष करते हुए डंडे और तिरस्कार से पीटा जाता है इ
शिक्षक के गंभीर दायित्व के लिए लोग सक्रिय और आकांक्षी हो ऐसी व्यवस्था हमने नहीं बनायीं है I तो जब हम बनायेंगे ही नहीं तो योग्य शिक्षक कहा से मिलेंगे?
अतः, हम गंभीरता से सोचें तो शास्त्रोक्त शूद्र और म्लेच्छ* ही आज हमारे आधुनिक भारतीय समाज में पूजित हैं ! (* अन्य लेख में)
हमारा ज्ञान, शिक्षा, शिक्षक, गुरु और धर्म के प्रति मौलिक प्रतिकार है!
आसपास नजर दौडाएं फिल्मो को देखें, समाचार पत्र टीवी चैनल या अन्य कोई प्रसार माध्यम हर जगह नायक है, कोई कमर मटकाने वाला भांड, छिछोरा, कोई परदे पर चमकने वाली ‘डर्टी’ नायिका या वेश्या, कोई माफिया, दबंग, गुंडा, तस्कर, घोटालेबाज, भ्रष्टाचारी या नेता आज का मीडिया हमारे बच्चो को यही सिखाता दिख रहा है की बस अब इन्ही लोगो के जैसा बना जाये और बस इन्ही से शिक्षा ली जाये. और आज देखें तो यही महानुभाव ही पूजनीय हैं क्योंकि इनकी सबसे बड़ी योग्यता पैसा है I और वहीँ, समाज का सबसे दयनीय व्यक्ति है एक शिक्षक! वो दुष्ट और भ्रष्टाचारी नहीं है. क्योंकि वो नियमो को तोड़ता नहीं, क्योंकि वो दोगला नहीं है वो जो पढाता है वैसा ही खुद करता भी है.. पर वो सम्मानीय नहीं है क्योंकि वो बिकाऊ नहीं है,पैसे के पीछे नहीं भागता*, क्योंकि वो अपने लिए अलंकार नहीं खरीदता I एक फ़िल्मी कलाकार बिना किसी विशिष्ट योग्यता के अरबो कमाता है, अनैतिक कर्म व आचरण दोनों करता है, समाज को कुछ नहीं देता पर मात्र आसानी से पैसे कमाने की योग्यता के कारन वो सबसे सम्मानित है और इस सबके ऊपर से, हर रोज गाँव मोहल्ले (बॉम्बे, दिल्ली, दुबई, मोरक्को इत्यादि) में एकानेक काले गंदे पैसे स चमकाए ख़रीदे मंच-अंच लगाकर खुद ही को पुरस्कार सम्मान भी बाँटता बटोरता फिरता है! और वहीँ, एक शिक्षक न सम्मानित है और न ही निर्वाह संपन्न और न ही सक्षम है समाज से उसके प्रति कृतज्ञता का भाव अर्जित करने में! क्यों हो?
आखिर शिक्षक क्या सिखाता है, जिसको जो बनना है वो तो ऐसे ही बन जायेगा क्योंकि जो बनना है उसके लिए पढाई कोई जरूरी थोड़े है! फ़िल्मी भांड, रैम्प का कैलेण्डर मॉडल, माफिया, तस्कर या यहाँ तक की पुलिस या नेता और खिलाडी बनाने के लिए भी शिक्षा कोई आवश्यक योग्यता में आती नहीं! और जब बिना पढ़े ही सबसे धनी और सबसे सम्मानित हो जाये तो कोई सचिन, शाहरुख़ स्कूल में मुंह पिटाने क्यों जायेगा ?
पर आज हमारे बच्चे इन्ही माध्यमो से शिक्षा पा रहे हैं इसके लिए सावधान रहने की अत्यंत आवश्यकता है!
आज हम बच्चो को कहाँ पढ़ा रहे हैं? ईसाई मिशनरियो द्वारा संचालित कुछ सौ साल पुरानी जन-व्यवस्थाओ द्वारा गढ़ी विदेशी शिक्षा पद्धति को भारतीय बच्चो में बाँटते पब्लिक स्कूल, विधर्मी-विदेशी इस्लामी शिक्षा देते मदरसे या फिर खिचड़ी शिक्षा देते सरकारी स्कूल! समूचे विश्व को दीक्षित करने वाले विश्व गुरु भारत देश को शिक्षा का पाठ पढ़ाने का जिम्मा आज अंग्रेज, पिद्दी के शोरबे, चड्डी पहने बच्चो की माफिक उछलते कूदते कुछ नवसंपन्न, नवउन्नत देशो के हाथ थमा दी गयी है !
क्या कर रहा है भारतदेश को पढ़ाने वाला सीबीएसई बोर्ड, क्या कर रहे हैं आईसीएससी बोर्ड या अन्य बोर्ड? क्या कर रहे हैं भारत के उच्च शिक्षा के नियामक सरकारी संस्थान?
मुगलों ने पहले इस देश से धर्म (आर्य धर्म या हिन्दू धर्म) का विध्वंस कर दिया और बस दो सौ साल पहले अंग्रेजो ने शिक्षा, गुरुकुलो और ज्ञानकेन्द्रों का सुनियोजित तरीके से “(अंग्रेजी-करण)मैकाले“करण कर दिया !!
सन ११९२ से विध्वंस झेलते और पिछले बस ५०० सालो में हमने वो सब गँवा दिया जो १०५०० सालो में हमने स्थापित किया था.
और आजादी के बाद जब आवश्यकता थी फिर से उसी अखंड भारत को खड़ा करने की तो कोंग्रेस की मौकापरस्त, अंग्रेजो की दलाल सरकार ने स्थापित कर दिया एक ऐसा कूड़ा और खिचड़ी शिक्षा तंत्र जहाँ विद्यार्थी स्वयं में भारतीयता का विकास नहीं करता वो अपने अन्दर बोता है एक ब्रिटेन, अमेरिका, एक रूसी संघ, चीन, एक इस्लामिक देश कोई अरब या पाकिस्तान या फिर एक भारतीय बच्चा अपने अन्दर विकसित करता है “इंडिया” को!!! और ऐसी शिक्षा व्यवस्था जो बनाती है अमेरिकी और यूरोपीय फैक्टरियों के मजदूर और विदेशियों के लिए विदेशी सोच वाले भारतीय कामगार I
आज भारत की सरकारी शिक्षा एजेंसी अंकुरण कर रही है उन्ही भूरे अंग्रेजो का “जो दिखने में तो भारतीय हो पर सोच, नैतिकता, आचरण और निष्ठां में हो पूरे अंग्रेज” (लॉर्ड मैकाले १८३६, ब्रिटेन की संसद), आज भी यह शिक्षा वैसे ही भारतीयों को रोज तैयार कर रही है जो भारत को कत्तई नहीं जानते उन्हें सरोकार है फ़्रांस की क्रांति से उन्हें मतलब है रूस की क्रांति और ग्रीक, लैटिन या रोमन आदर्श, संस्कृति और मूल्यों से!! भारतीय किताबें गुरु नानक देव, महाराणा प्रताप, शिवाजी गुरु तेग बहादुर को भगोड़ा बताती हैं, भगत सिंह, चंद्रशेखर आजाद, नेताजी सुभाष चन्द्र बोस, खुदीराम, रासबिहारी, अशफाकुल्ला को आतंकवादी बताती हैं I इस भारतीय इतिहास को पढ़कर किसी को भी भारत या भारतीयता पे गर्व नहीं होता, न कोई जुडाव होता है! क्या हमें ये मालूम नहीं है?
इस सरकार ने भारत को अभी सन सैंतालिस को पैदा हुआ एक नवजात राष्ट्र बना दिया है जिसकी अभिभावक और जननी कोंग्रेस है और नाजायज़ बाप इंग्लैण्ड!!
ये किताबें मुगलों जैसे विदेशी आक्रान्ताओं को महिमामंडित करती हैं जिन्होंने भारत से भारत को ही मिटा दिया अविस्मर्णीय अघात दिए, पर यही किताबे भारतीय नायको को याद भी नहीं करती उनको आदर्श के रूप में स्थापित करना दूर की बात है!
चन्द्रगुप्त विक्रमादित्य, समुद्रगुप्त, पुरु, शिवाजी, महाराणा प्रताप, राणा सांगा, पृथ्वी राज चौहान, कुमारगुप्त, चाणक्य, चन्द्रगुप्त मौर्या, ऋषि कश्यप, पाणिनि, पतंजलि, कालिदास, वेताल, युद्धिष्ठिर जैसे अनगिनत वास्तविक भारतीय नायको की चर्चा की जगह हमारी शिक्षा सिकंदर, अकबर, औरंगजेब, हुमायूँ , बाबर, खिलजी, शेरशाह सूरी, तुगलक आदि को महान एवं सहृदय भारतीय साबित करती है ! ये जितना शर्मनाक और दुखदायी है उतना बड़ा बस ब्रह्माण्ड ही हो सकता है!
वास्तव में आज सरकारी स्कूली शिक्षा मात्र कम्मुनिस्ट इतिहासकारों, चिन्तक-लेखको और विदेश प्रशिक्षित अन्वेषकों की प्रयोगशालाएं बन गयी हैं जो या तो भारतीयों को रशियन, चीनी या फिर रोमन नागरिक बनाने पर तुली हुई हैं या फिर अभारतीय अरबी निष्ठावान. और उस विध्वंस और अपसंस्कृत नाश से बचाने हेतु भारतीय मूल्यों और धर्म की पुनर्स्थापना का विरोध “भगवाकरण” आदि कुत्सित नामकरण संस्कृति से किया जाता है!
समूचे देश में ये शिक्षा पद्धति गहरे और अपरिवर्तनीय नुकसान पर नुकसान करती जा रही है .. एक तरफ ये विधर्मियो को प्रोत्साहित कर रही है वहीँ राष्ट्र द्रोही पृथकतावादी कुटिल कुचक्रो(कश्मीर, असम, आंध्र, ओरिसा, तमिलनाडु आदि में !!) को बढ़ावा दे रही है और इसलिए यह शिक्षा पद्धति पंगु है देश को नक्सली और अन्य विभाजनकारी दुराग्रही शक्तियों से बचाने में!! और शायद यह शिक्षा मदद कर रही है इस माओवादी नक्सली विकृति को बढ़ाने में!!
कहते हैं, ज्ञान (या शिक्षा) हमें उस अज्ञात वृहद् सर्वव्यापी तक ले जाती है जो हमारे लिए अप्राप्त्य है !!
शिक्षा मात्र नौकरी पाने का माध्यम नहीं है ये कारक है जातक के अपनों शक्तियों और योग्यताओ को उभारने का! शिक्षा माध्यम है धर्म, नैतिकता, चरित्र स्थापित करने का I (हो सकता है अधिकतर भारतीयों को इन शब्दों के सही अर्थ न मालूम हो, पर यह जानना आवश्यक है.)
इसलिए उच्च या प्रोफेशनल शिक्षा में शायद कम पर प्राथमिक शिक्षा में सर्वदा उचित धार्मिक, सामाजिक, नैतिक प्रतिमानों के अनुकूल मूल्यों का निषेचन किया जाना चाहिए!
नक्सलवाद की समस्या के मूल में इस के अलावा अन्य कई और कारण भी हैं जैसे दिल्ली सरकार की इसके प्रति बेपरवाही और मूक प्रोत्साहन, कुछ तथाकथित बुद्धजीवियो और कम्म्युनिस्टो द्वारा इसके प्रत्यक्ष या परोक्ष समर्थन या फिर कुछ भारत विरोधी विदेशी, विभाजनकारी शक्तियों द्वारा इस द्रोही तंत्र को मिल रहा पोषण !
आज हम एक खिचड़ी संस्कृति, दिग्भ्रमित शिक्षा, भ्रष्ट आचरण और देश द्रोह को फ़ैलाने वाली शिक्षा अपने बच्चो को दे रहे हैं और यही कारण है इस देश की दुर्व्यवस्था और यहाँ फैले समस्त अनाचार का !
जब हम खुद ही भारत यानि आर्यदेश को जिन्दा नहीं करेंगे तो उसे पोषित और विकसित कौन करेगा?
अपने गुरुओ की बातो को समझने की जगह हम उन्हें मात्र मनोरंजन का साधन बनाकर, उनकी बातो को अपनाने की जगह उसे प्रतीक मात्र बना कर छोड़ देंगे तो हममे और निरक्षरों में क्या अंतर रह जायेगा? ठीक है, मीडिया के लिए इन धर्म गुरुओ, या गुरुओं का कोई महत्त्व नहीं पर हम आप तो समझदार हैं?
दुःख इस बात का है की देश का युवा एक अपधर्मी संस्कृति की घुट्टी पीकर बड़ा हो रहा है और बड़ो की वो सुनता नहीं … इस देश का क्या होगा ये सोचना कठिन नहीं पर एक राष्ट्र प्रेमी के लिए तो ये एक भयावह दूस्वप्न से बढ़कर है I
इस विध्वंसित, नष्टप्राय देश को जोड़ने वाले सूत्र यानि एक सक्षम शिक्षा तंत्र को जल्दी स्थापित करना ही आज की पहली जरूरत है II
पर १२५ करोड़ सिरों के इस मदमस्त भस्मासुर को कौन अभिमंत्रित कर सकता है?
क्या है कोई ऐसा शिव?
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ॐ तत्सत !!!

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