मंगलवार, 16 अक्टूबर 2012

माँ का शोषण .. गंगापुत्रों कब करोगे उद्धार??

गंगा साक्षी है अपने पिता हिमालय की गोद से निकली अथाह जलधारा द्वारा पोषित विश्व की प्रथम, सबसे महान हिन्दू संस्कृति के विकास की I साढ़े पांच करोड़ सालो में हिमालय के अवरोहन के साथ ही उत्पन्न हुई गंगा ने उस धरा को जहाँ कभी एक प्राचीन सागर “टेथिज़” हुआ करता था विश्व की सबसे उर्वर भूमि बना दियाI सिन्धु, सरस्वती, हक्कर, और फिर व्यास, चनाब, सतलज, रावी, झेलम आदि ने विश्व की सबसे पहली, अत्यंत विस्तृत और विकसित शहरी सभ्यता को पाला उस हड़प्पा मोहेन जोदारो (ये तो खैर उत्खनित उस आधुनिक स्थान का नाम है हम इसे “मेहरगढ़-हक्कड़” नदी की “प्राचीन भारतीय सभ्यता” कह सकते हैं!! ) के समाप्त(शायद, महाभारत युद्ध के आसपास यानि ~लगभग ३८०० विक्रम पूर्व!) हो जाने के पश्चात् इन महान पावन परममाता सदृश नदियों की कनिष्ठ सखियों यानी गंगा और यमुना आदि ने उत्तर भारत की शक्तिशाली प्रभावशाली उस जन समुदाय को पाला है जिन्होंने कभी समूचे विश्व पर राज किया है (जीहाँ, जिसके बारे में फिर कभी कहेंगे*!) I
परमेश्वर शिव शंकर शैलेश महादेव की बैठकी कैलाशधाम की गंगोत्री और आदि धारा अलकनंदा और सगरपुत्र भगीरथ की भागीरथी की ताकतवर जलराशि से प्रचंड हुई गंगा नदी विश्व की कोई एक अरब की जनसँख्या को जिन्दा रखती है! अखंड भारतवर्ष (यानि जिसमे कोई और पडोसी देश नहीं था!)की विराट जनसँख्या की पालनहार गंगा नदी इसीलिए माता कहाती है! और इसी नाते हम उसके पुत्र हैं संतति हैं!!
पर, जैसा सूक्ष्म जीव विज्ञानं का एक सिद्धांत है हम अपनी मौत खुद ही तैयार करते हैं I जीहाँ, एक बैक्टीरिया-एकल कोशिका को जरूरी पोषण अगर समुचित मात्रा और पर्याप्त अवधि के लिए भी मिल जाये तो यह सूक्ष्म जीवी गुणात्मक संख्या वृद्धि कर सकता है यानि २४ घंटे में केवल एक बैक्टीरिया से कई अरब नए बैक्टीरिया पनप जाते हैं!! पर अगर इस बैक्तीरिअल कॉलोनी को और पनपने दिया जाए तो यही कॉलोनी अगले ६ घंटे में तेजी से मारी भी जाती है .. वो भी बस हर बैक्टीरिया के पैदा किये जहरीले टोक्सिंस ‘एक्सो टोक्सिंस’ के कारन I
गंगा नदी ने अपनी महान जलधारा द्वारा एक सबसे उर्वर जमीन और विश्व की सबसे घनी आबादी को पालकर रखा है!! और यही गंगापुत्र उसी माँ की छाती से दूध पीते हुए आज अब उसका खून चूसने लग गए हैं!!
विश्व की सबसे भाग्यवान और सुस्त जनसँख्या इसी क्षेत्र में है जिसे खेती के लिए (अपेक्षाकृत) खास श्रम नहीं करना पड़ता.. और सुलभ निर्वाह और जीवन के लिए विश्व पारिस्थिकी की इस सबसे अनुकूल जलवायु ने एक कृतघ्न जनसमुदाय को जन्म दे दिया है जिसका वास्तव में विश्व के लिए आज तो कोई योगदान नहीं है सिवाय नरमुंडो से भरी गन्दगी फैलाती, पर्यावरण को खाती गंधाती, दुनिया पर बोझ जीने मरने को संघर्ष रत मानवता के!!
जीहाँ मैं बात कर रहा हु उसी धरा की जहाँ मैं रहता हु और उन आत्ममुग्ध स्तब्धचेतन भारत-काशी-वासियों से कहता हु जो शायद इस कडवी सच्चाई को स्वीकार न कर पायें!
 चित्र   1 ganga pollution
बेहद शर्म की बात है की आज गंगा औए यमुना जैसी नदियाँ कीचड़ समेटती नाले जैसी दशा में आ गयीं हैं और यह निकृष्ट मनुष्य ऊँची अट्टालिकाएं खड़ी करते खुद को चमकीले झूठ में लपेटते इस प्राणदायिनी धारा में अपना मल बहा रहा है I कितना मूर्ख है यह मनुष्य, जिस जल को उसने अपने रक्त में संजोया है अब उसी को पतित करते वह कभी शर्मसार नहीं होता I
अपने होशो हवास और सत्यनिष्ठ संज्ञान में (मुझे ये क्यों कहने की जरूरत है!?) रहते हुए मैं ये कह सकता हु एक समय पूरे विश्व पर* शासन करने वाली नस्ल आज खुद पृथ्वी पर बोझ बन गयी है!
गोमुख, रुद्रप्रयाग, हरिद्वार, ऋषिकेश,कानपूर, प्रयाग, पाटलिपुत्र\पटना और काशी, बनारस या वाराणसी जैसे प्रमुख तीर्थस्थलो और ऐतिहासिक स्थलों को पहचान देने वाली इस नदी गंगा को बचाने के लिए हम क्या कर रहे हैं?
गंगा तट पर कीर्तन करने से, कथा यज्ञ करने से, रोज चीख चिल्ला कर घर में वापस आकर बैठ जाने से, चित्रकला प्रतियोगिता आयोजित करने से, फिल्मे\वृत्तचित्र बनाने से(वैसे शायद बनी एक भी नहीं है !), संगीत रसास्वादन प्रतियोगिता आयोजन करने से, अगरबत्ती जलाने और फूलमाला चढाने से, मौन व्रत रखने से क्या हम हजारो सालो से मैली गंगा को स्वच्छ कर लेने का स्वप्न देखते हैं? क्या जागरूक, निर्भीक और सजग ही सही कुछ नागरिको द्वारा पैदल यात्रा करने, व्रतादि करने, अनशन करने, जागरूकता जुलूस निकालने और केंद्र सरकार से दीन-दशा में हाथ पैर जोड़ने से कुछ हो पा रहा है? हमें तो ऐसा दिख रहा नहीं I
क्या हम जानते हैं कौन है स्वामी ज्ञानस्वरूप सानंद ? प्रौद्योतिकी संसथान रूडकी से स्नातक, बर्कले, अमेरिकी कैलिफोर्निया विश्वविद्यालय से डॉक्टरेट और विश्वमान्य अध्यापको द्वारा अभी भी सम्मानीय, अखिल भारतीय प्रौद्योगिकी संसथान, कानपुर में पर्यावरण अभियांत्रिकी के प्रसिद्द विभागाध्यक्ष और भारत सरकार के सेन्ट्रल पौलुशन कंट्रोल बोर्ड के मेंबर सेक्रेटरी रह चुके प्रोफ जी डी अगरवाल ने एक विद्वान् के रूप में सम्मानित होने के लिए जो भी चाहिए वो सब हासिल किया है! आज वो संसारिकता छोड़ ज्ञान, धर्म और आध्यात्मिकता के पथ पर एक आत्मउत्सर्गी योगी की तरह अपने प्राकृतिक दायित्व के लिए सन्यासी बन वो कर रहे हैं जो एक शुद्ध नेता को शोभता है I पर कहाँ हैं स्वामी सानंद?! क्या हुआ उनके आह्वाहन को? कहा हैं काशी में पहले आन्दोलन करने वालो में बाबा नागनाथ योगेश्वर महाराज आदि? और कहाँ हैं स्वामी अविमुक्तेश्वरानंद, स्वामी चिन्मयानन्द, साध्वी पुर्नाम्बा आदि जिन्होंने गंगा की रक्षा-जागरण के लिए आमरण अनशन किया है? क्या इस देश को कुछ असर पड़ता है? इस देश को तो किसी भी बात से कोई प्रभाव नहीं पड़ता ! देश लुट रहा है, देश सड़ रहा है और देश मर रहा है पर हमें कोई फर्क नहीं पड़ता!!
 चित्र २  स्वामी सानंद
किसी विद्वान, वैज्ञानिक, गुरु, किसी सिद्ध साधू और जागरूक पर्यावरणविदो के आह्वाहन से क्या इस देश को कोई फर्क पड़ता है? शायद नहीं क्योंकि महान भारत देश की सारी चेतना शायद अब बस फ़िल्मी कलाकारों और चिकने चौखटों और विलासी रंगरलियो के संपादको के हाथ में ही रह गयी है!
यह मनुष्य तो हमेशा से लालची रहा है.. उसे रोज नया राज्य चाहिए, अपना राज चाहिए सत्ता का सुख भोगने के लिए.. आज यह भयंकरतम पशु पृथ्वी के हर कोने पर विद्यमान है- वो रेगिस्तान हो, जंगल हो, पहाड़ के ढाल हो, बर्फीले लद्दाखी ग्लैशिअर हो, नदी का किनारा हो या नदी का मध्य द्वीप हो, समुद्र हो आसमान हो ये आदमी कहाँ कहाँ नहीं पहुँच गया है रहने के लिए …… अब तो पृथ्वी पर भी जगह नहीं बची है.. और आज ये मनुष्य नयी नयी राजधानिया खोज रहा है जमींन बेच रहा है, नदियों को बांध रहा है, राष्ट्रीय भूमि की सम्पदा निकाल निकाल कर देशवासियों के पैरो तले की की जमीन खोखली कर चूका है … ये मनुष्य जिस डाल पर बैठा है उसी को कुल्हाड़े से काट रहा है पर मदमस्त मनुष्यों को होश नहीं आ रहा और इस सरकार का क्या कहें जो पिछले सत्तर साल से इस देश को चला रही है और आज तक क्या क्या कर चुकी है हमें अब सब मालूम भी है. पर अब ये सरकार तो देश, भारतीय सम्मान, सम्पदा, सुरक्षा तो खैर छोड़ ही दिया जाये राष्ट्र की प्राणशक्ति को भी गँवाना चाहती है..
इस देश के १९२१ के ५५% वन क्षेत्रआज २०% से भी नीचे आ चुके हैं, वातावरण में सभी तरह के जहरीले प्रदूषक मौजूद हैं, खान-पान में कीटनाशक रसायन हैं, भूखमरी, गरीबी के बावजूद जनसंख्या दुनिया में एक कम अव्वल पहुँच गयी है …
मनुष्यों का चरित्र कलुषित है, वायु प्रदूषित है, खाना गन्दा है और पानी भी सड़ चूका है… आखिर हमें किसका इंतजार है?
यह सरकार अपने कुछ मुखौटो के जैसे ही पेटीकोट, चूड़ी पहनने वाली एक शोशेबाज नटनी बन गयी है जिसने अपनी कमी और अपराध को कुछ साड़ियो और बेचारगी (भरे चेहरों) के पीछे छिपा रक्खा है.. जिसका किसी भी राष्ट्रीय समस्या के समाधान के लिए कोई इच्छाशक्ति नहीं है और न ही क्षमता!!
अजीब बात लगती है, विश्व भर में पर्यावरणीय अभियांत्रिकी हो या अन्य आवश्यक तकनीक, में आशातीत उन्नति हो चुकी है, इसी देश में कई प्रतिभावान वैज्ञानिक और अभियांत्रिकी पेशेवर देश के उच्चतम संस्थानों से प्रशिक्षित होकर निकलते हैं, वो सब कुछ है जो इस देश को साफ करने के लिए चाहिए I सत्रहंवी अठारवी शताब्दी तक यूरोप भी अपनी नदियों में तथाकथित विकास के वाहक कारखानों इत्यादि द्वारा फैलाई गंदगी से त्रस्त थे.. पर जर्मनी, इंग्लॅण्ड, फ़्रांस इत्यादि देशो ने अपनी नदियों नाइस, थेम्स, रहाईंन आदि को पूर्णतया प्रदूषण मुक्त कर दिया(नदियों से सिल्ट हटा कर जल को पूरा छानने वाले यंत्रो से और शहरी मलजल का सही निस्तारण करके चाहे वो ‘सामानांतर कैनाल तंत्र’ हो या अन्य तकनीको से) और आज उनक नदियों को देखिये तो मन स्वर्गिक आनंद से भर उठता है पर भारत की नदियों को देखें तो लगता ही नहीं यहाँ मानुस रहते हैं! सारी तकनीक इस सरकार और हर जगह मौजूद स्वार्थी नेताओ के तलवे तले बिलिबिलाती रहती है!
बनारस आइये और देखिये, सम्राट समुद्रगुप्त की दिग्विजयी शौर्य की प्राचीन स्मृति-स्थली गंगा किनारे स्थित विश्व प्रसिद्द दशाश्वमेध घाट को जहाँ मिलता है विश्व भर से आये सैलानियों और भारत प्रेमियों (जीहाँ, उनका विशिष्ट नाम भी है– indologists !!!) के सामने ही मल मूत्र त्याग का प्रदर्शन, उस के पास में ही श्रद्धालुओ द्वारा आचमन के लिए मुख में लिया गंगा नीर, लोभी-लम्पट मनुष्यों द्वारा गंगा का चीर नोच् लेने की आतुरता, मल्लाहो-पंडो-दुकानदारो-पुलिसियों-दलालों-भिखारियों-जानवरों से भरा गंगा तीर,और दिखता है मूढ़ नराधम निवासियों और सबसे बढ़ कर क्षेत्रीय नगरपालिका (अधिकारी और नेता) की लापरवाही का गन्दा नजारा.. इसी नगर से प्रदेश सरकार सबसे अधिक राजस्व वसूलती है और इस भारतीय पर्यटन की शान और भारतीय संस्कृति की पहचान नगरी को बदले में देती है विशुद्ध तिरस्कार– कुव्यवस्था और प्रदूषण के रूप में!!
बनारस भारत के पांच प्रमुख पर्यटन स्थलों में अत है जहाँ सबसे अधिक देशी और विदेशी पर्यटक और तीर्थयात्री आते हैं कोच्चीन, बड़ोदा से लेकर भुवनेश्वर, मदुरै से लेकर ईटानगर, जोधपुर, सोलापुर से लेकर न्युयोर्क, लात्विया से लेकर ऑस्ट्रेलिया, स्विट्जलैंड से लेकर नईजेरियन, मैड्रिड से लेकर शंघाई, सिंगापूर से लेकर लन्दन समस्त विश्व से आगंतुक बड़े उत्साह और उतुसुकता से यहाँ आते हैं.. सोचिये उनके सामने हम क्या अपने देश-संस्कृति का कैसा चेहरा प्रस्तुत करते हैं?
प्रदेश हो या केंद्र सरकार सबने गंगा तीर्थो का गला घोंटने की ठान रक्खी है आखिर नदियों को बांध कर वो किसको जिन्दा रखना चाहते हैं क्योंकि गंगा के मरने पर ये देश भी नहीं रहेगा और इस मात्रु तुल्य नदी के मरने की शुरुआत हो चुकी है I स्वच्छ गंगा अभियान के नाम पर ढेरो शोध संस्थान, जलशोधक यन्त्र और जाने कितने सरकारी गैर सरकारी संस्थाओं का खाना पचाना चल रहा है, सालो में कई अरब रुपये स्वाहा हो चुके हैं पर गंगा की गंदगी हमारी अकर्मण्यता की तरह बढती ही जा रही है!! नदी तल से वन क्षेत्र नष्ट हो चुके हैं, तल गाद गंगा को उथला कर चूका है, गंगा की जल-कीटनाशी क्षमता नष्ट प्राय है, कई तन मल इसमें प्रवाहित किया जा रहा है, सहायक नदियों असि और वरुणा को जिन्दा दफ़न किया जा रहा है.. टनों कूड़ा पैदा किया जा रहा है और टनों गंगा में फेंका जा रहा है.. स्थिति बिगड़ रही है और हमें घंटे बजाने और गंगा आरती करने से फुर्सत नहीं है
अब हमें कुछ करना ही होगा..
इस नगर, इस प्रदेश और इस देश को जागना ही होगा इस वास्तविक वैश्विक राजधानी काशी की प्राणदायिनी गंगा की मुक्ति के लिए
आह्वाहन है समस्त भारतीयों गंगापुत्रो से इस अभियान में शीघ्रातिशीघ्र सम्मिलित हो अपने स्वेद, अपने श्रम, अपनी शक्ति, अपनी भक्ति और हो सके तो अपने रक्त के अर्पण के लिए… अगर आप भारतीयों की शिराओं में कहीं भी भारतीयता का अंश है तो काशी को शक्ति दें .. काशी में आने पर ही आपको मालूम हो सकता है अपने भारतीय, वास्तविक भारतीय अंश का साक्ष्य.. उस भारतीयता से जुड़ने पर ही भास होगा आपको अपने शक्तिपूर्ण अध्यात्मिक अस्तित्व का !!

वासुदेवम परित्याज्य यो अन्य देवं उपासते,
त्रुषितो जाह्नवी तीरे कूपम वन्चाती दुर्भागा II.

राष्ट्र निर्माण करना है तो प्रथम गंगा का उद्धार करना होगा शायद गंगा की त्रासदी का कारन यही है की हम उसे माँ समझते हैं और इसीलिए
उसकी छाती को रौंदते हैं, उसपर अपने सारे पाप का बोझ डालकर निश्चिन्त हो जाते हैं हम समझते हैं की माँ को किसी सहारे की क्या जरूरत . पर हमें सोचना होगा की गंगा है तो एक नदी ही, कविता-कल्पना-साहित्य के दायरे के बाहर और इस जलराशि को स्वच्छ करने के सख्त, पुख्ता और परमावश्यक उपाय करने होंगे और सबसे पहले लालचियो की जमात राजनेताओ को विवश करना होगा…
आज ये सरकारे अपनी नाकामियों को अपनी ताकत से छुपा रही हैं I जनहित में कुछ ठोस करने की जगह सन्तों, सत्याग्रहियों, नागरिको को पुलिस बल से जबरी संकल्प प्रदर्शन स्थल से दूर कर रही है I इस सत्याग्रह को अब उग्र रूप देना चाहिए और सरकार को उसके आसमान से उतार कर जमीन पर लाकर बात करनी होगी!!
(आज की सूचना ये है की बाबा नागनाथ, देवी पुर्नाम्बा, देवी शारदाम्बा व दर्जनों अन्य अनशन रत बटुक मृत्यु शैय्या पर हैं.. )
vns
सगरपुत्र भागीरथ ने सहस्त्र वर्ष तप करके गंगाजल का प्राणकारी एवं मुक्तिदायक उपहार हमें दे दिया क्या हम उस गंगा की मुक्ति हेतु एक अन्य भीषण तप नहीं कर सकते ?!
आज इस की महती आवश्यकता है …
प्रार्थना है की महेश्वर हमें प्रेरित करें..
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हर हर महादेव II

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